Laghukathaon ka Sansar, Part-1 in Hindi Short Stories by Pradeep Kumar sah books and stories PDF | प्रदीप कृत लघुकथाओं का संसार, भाग-1

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प्रदीप कृत लघुकथाओं का संसार, भाग-1

प्रदीप कृत लघुकथाओं का

संसार

भाग 1

(कहानी)

प्रदीप कुमार साह


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क्रम

प्रयत्न लघुकथा

प्रतिमा लघुकथा

प्राश्चित लघुकथा

त्याग और प्रेम संक्ष्पित कहानी

दुष्प्रभाव लघुकथा

आकांक्षा कहानी

लक्ष्य कहानी

पगला लघुकथा

स्वाधीनता की कीमत लघुकथा


प्रयत्न (लघुकथा)

एकबार कोई जिज्ञासु किसी तपोमुर्ति साधु को प्रणाम निवेदित कर उनके समक्ष अपना यक्ष प्रश्न रखा—हरि कथा सुनने में मेरी अत्यन्त प्रीति हैय जितना सुनता हुँ मन नहीं भरता. किन्तु अभी तक हरि कौन हैं और हरिकथा सुनना किस लिए का समाधान नहीं हुआ.

जवाब मिला—हरि अनंत हरिकथा अनंताय निज मति अनुरुप गावहि श्रुति संता. अर्थात्‌ हरि अनंत स्वरुप, प्रत्येक जड़—चेतन जीव एवं उनके गुण—धर्म अर्थात स्वभाव एंव उनकें कर्म—विकर्म के कर्म फल हैं. अनंत द्वारा स्वभावतः रचित चरितार्थ कर्म की व्याख्या (कथा) निश्चय ही उनसे अधिक बड़ा है, जो सभी जानते हैं. किंतु इच्छा भी अनंत होती हैं. जब हरि और इच्छा दोनों अनंत हैं फिर एक त्याज्य क्यों? वास्तव में त्याज्य कोई नहीं. दोनों धनुष के दो सिरें हैं, जो एक कभी नहीं हो सकतें किन्तु परिपूरक आवश्य हैं. प्रयत्नरुपी कर्म की रस्सी से दोनो का सामजस्य रखना परम आवश्यक हैं. प्रयत्न विचार के अनुरुप ही होता है. सामजस्य विचार प्राप्ति हेतु इच्छा का नियंत्रित होना आवश्यक है. इच्छा पर नियंत्रण स्वभावतः होता है. स्वभाव निर्माणहेतु हरिगुण या सद्‌गुण ग्रहण करने हेतु कर्म एंव प्रयत्न किये जाते हैं. वही कथा सुनना प्रयत्न है. कहा भी गया है कि कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करहिं सो तस फल चाखा. कर्म का सार तत्व प्रयत्न है.

ऐसा कहते हुये साधु तप लीन होने के प्रयत्न करने लगें और अपने प्रश्न का समाधान पाकर जिज्ञासु साधु को प्रणाम कर विदा लिया.

प्रदीप कुमार साह

प्रतिमा (संक्षिप्त कहानी)

एक समय किसी गॉव में प्रतिमा निर्माण में सिध्धहस्त एक निर्धन मुर्तिकार रहता था. उसके कलात्मक प्रतिमा की चर्चाएं दूर—दूर तक थी. एक दिन साधु से दिखने वाले कुछ लोग आकर उससे कुछ विचित्र प्रतिमाएं बनाने का आग्रह करने लगे. यद्यपि वे काफी विद्वान्‌ थे और अध्यात्मविद्‌ जान पड़ते थेए उनकी मंशा जगत्‌ कल्याण की जान पड़ती थीए किंतु वे काफी निर्धन थे.वैसी स्थिति में मुर्तिकार सोचने लगा कि वैसी विचित्र प्रतिमाएं बनवाकर वे वापस प्रतिमा खरीदने ही न आए तो वह उन विचित्र प्रतिमाओं का क्या करेगा? वैसी प्रतिमाएं कौन खरीदेगा? यह सोचकर वह बात टालना चाहता था. किंतु उनलोगों के बारंबार आग्रह करने पर अंततः वह प्रतिमा निर्माण हेतु तैयार हो गया.

उसने कहे अनुसार प्रतिमाओं का निर्माण किया. वे प्रतिमाएं अत्यंत विचित्र थे. एक सिंह पर सवार शस्त्र—सुसज्जित दस भुजाओं और त्रिनेत्रवाली कोमल स्त्री किसी दुदार्ंत पुरुष पर शस्त्राघात कर रही थी तो दुसरा जटाधारी—ध्यानस्थ—त्रिनेत्रधारी दिगम्बर था जिसने अपने शीश पर चंद्रमाए गले में सर्प और रुद्र मालाए तथा बिच्छुओं का कुंडल व त्रिशुल धारणकर रखा था. साथ में सामने वृषभ और सिंह बैठा था. तिसरा और भी विचित्र था. चतुर्भुज शस्त्र—सुसज्जित गजमुख बालक मुषक की सवारी कर रहा था. इसी तरह अन्य प्रतिमाएं भी विचित्र थी. खैर नियत समय पर आकर उचित पारिश्रमिक देकर वेलोग अपना निर्दिष्ट प्रतिमा ले गये.

थोड़े दिन बाद जब किसी काम से मुर्तिकार का शहर जाना हुआ तो उसने आश्चर्यजनक चीजें देखी. रास्ते में अलग—अलग गॉवों में वे साधु उसके द्वारा निर्मित उन विचित्र प्रतिमाओं के विभिन्न अंग—प्रत्यांग का प्रतिपादन किसी जीव एवं उनके भिन्न गुणों से करते हुए जीवन में समरसता एवं प्रेम की आवश्यकता पर उपदेश कर रहे थे. वे सभी जीव के गुणों से प्रेरणा लेने का आग्रह कर रहे थे जिससे मानव जीवन गुणों का खान और कल्याणमय बन सके. उनके उपदेश सुनने में लोगों का खासा उत्साह था. मुर्तिकार को आश्चर्य हुआ और खुशी भी कि चलो समाज में वैचारिक समरसता और कल्याण तो स्थापित होगा.

कुछ दिन बाद कुछ सभ्य लोग आकर मुर्तिकार से वैसी ही प्रतिमाओं के निर्माण का आग्रह किया जिसे उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया. जब प्रतिमाओं का निर्माण हुआ तो वे लोग आकर मुर्तिकार का उचित पारिश्रमिक देकर प्रतिमाएं ले गये. थोड़े दिनों बाद जब मुर्तिकार का दूबारा शहर जाना हुआ तो उसने देखा कि उसके द्वारा निर्मित प्रतिमाओं का देवी—देवताओं के रुप में पुजन किया जा रहा है. प्रतिमाओं को चढ़ावा और भोग लगाया जा रहा है. वे सभ्यलोग मजे से चढ़ावे के धन समेट रहे हैं. उससे रहा नहीं गया. जब उसने इस संबंध में एक सभ्य व्यक्ति से बात की तो उसने कहा कि अपने काम से मतलब रखो. तुम्हारा प्रतिमा लोगों को पसंद आता है तो तुम्हें पारिश्रमिक मिलता है. लोगों को मेरे द्वारा प्रतिमा पूजन का विश्वास होता है तो मुझे दक्षिणा में धन देते हैं. उनकी बातें सुनकर मुर्तिकार को दुःख हुआ किंतु मन में यह कहकर संत्वना दिया कि समाज में थोड़ा सुधार अनवरत तो चलता रहेगा. कुछ दिनों बाद मुर्तिकार से वैसी प्रतिमाओं के निर्माण की काफी मांग होने लगा. फिर मुर्तिकार वैसे विचित्र प्रतिमाओं के निर्माण में व्यस्त रहने लगा. समाज में प्रतिमा पूजन देव पूजन का स्थान ले चुका था.

जब मुर्तिकार का तीसरी बार शहर जाना हुआ तो उसने रास्ते में कुछ प्रतिमा उपेक्षित रखा देखा. थोड़ा और आगे जाने पर देखा कि एक व्यक्ति प्रतिमा से भला—बुरा कह रहा था. पुछने पर पता चला कि समाज में अंधविश्वास फैल चुका था. प्रतिमा भौतिक संपन्नता देनेवाली शक्ति बन गयी थी. लोग स्वचरित्र सुधार के जगह प्रतिमा से गुहार (मनोकामनापूर्ति हेतु प्रार्थना) करने में लगे थे. मनोकामना पूरी नहीं करने पर प्रतिमा लोगों द्वारा कोसा जाता था. यह सब कुछ देखकर मुर्तिकार काफी दःुखी हुआ. किंतु वह भी विवश था कि भौतिक साधन जुटाने के पीछे रहे या जीवन के सच्चा सुख पाने के लिए अति—कामना के त्याग का रास्ता अपनाए.

प्रदीप कुमार साह

प्राश्चित (लघु कथा)

एक बार अति कुख्यात दस्यु दल (डकैतों का समुह) किसी मरणासन्न व्यक्ति के पास आया. किंतु मरणासन्न व्यक्ति को थोड़ा भी सशंकित, भयाक्रांत अथवा हत्तोतसाहित नहीं देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा. उन लोगों ने मरणासन्न व्यक्ति से इसका कारण जानना चाहा.

मरणासन्न व्यक्ति ने उन लोगों से प्रतिप्रश्न किया कि उन लोगों द्वारा निर्ममता से लोगों से लुटे गये धन का वेसब कितना समुचित लाभ क्या पाते हैं? लोगों से निर्मम व्यवहार करनेवाले दस्यु कब किस चीज से भयमुक्त रहता है?

दस्युओं से उसके प्रतिप्रश्न का जवाब नहीं बना. तब मरणासन्न व्यक्ति ने कहा कि दस्यु कभी सुखी और भयमुक्त नहीं रहते. उनका विकारों से भरा मन निर्बल हो जाता है जिससे वह सत्य का सामना करने योग्य नहीं रहता. जबकि लोग दस्यु द्वारा अपना धन हरण होने पर भी जीते हैं. कुछ लोग वैसे भी हैं जो मृत्यु समीप रहने पर भी भयमुक्त और शांतचित होते हैं.

यह सुनकर दस्यु और भी आश्चर्य चकित हुआ. तब उसने आगे कहने लगा कि इसका कारण है कि वेसब श्रीगीताजी का यह श्लोक आत्मसात्‌ कर लिये हैं एकि मनुष्य को सत्कर्म प्रभु की सबसे बड़ी सेवा, अपना परम कर्तव्य और सु—अवसर एंव सद्‌मार्गगामी समझकर करना चाहिये. इससे मनुष्य में कर्म के प्रति लगाव, समर्पण, सावधानी एंव हृदय में दया और बुरे भाव तथा बुरे कर्म के प्रति विरक्ति जन्म लेता है.

इतना कहकर वह चुप हो गया. मर्म की बातें जानकर दस्युओं ने आगे बताने की प्रार्थना की. उसने आगे बताया, वे सब द्रढ़़ विश्वास करते हैं कि प्रतिफल देना प्रभु का परम दायित्व है. इससे वे प्रतिफल की कामना से तटस्थ होते हैं. इससे प्रतिकूल समय में भी वे शांतचित्त रहकर अगला लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं और सदैव आशान्वित, कार्यान्वित और चिंतामुक्त रहते हैं. वे किसी का अहित कभी नहीं करते. गलती होने पर स्वतः सुधारकर प्राश्चित करते हैं. अपनी गलती पर उन्हें दुःख और ग्लानि होता है, क्योकि उनके हृदय में दया और लज्जा होती है. प्राश्चित करने से हृदय का विषाद मिट जाता है और अत्मबल बढ़ता है.

इतना कहकर उसके प्राण—पंखेरु उड़ गये. किंतु जाते—जाते उसने सबकी अॉखें खोल दी.

प्रदीप कुमार साह

त्याग और प्रेम (लघुकथा)

एक समय किसी गाँव के समीप एक सुन्दर सरोवर हुआ करता था. सरोवर के पास छोटा सा एक पवित्र मंदिर था.उसी मंदिर के पास अत्यंत वृद्ध किंतु परम परोपकारी संयासिनी झोपड़ी में रहती थी. उनके पास नित्य बहुत से लोग अपनी समस्याओं के निराकरण हेतु आते थे.

एक दिन एक समृद्ध युवा दंपत्ति आकर उनसे कहने लगे कि उन्हें सुख और शांति का अनुभव नहीं होता. कारण पुछने पर पत्नि ने कहा कि उसका पति उससे उतना प्रेम नहीं करते जितना वह करती है. पति का शिकायत भी वही था.

उनकी बातें सुनकर वृद्ध सन्यासिनी थोडी देर कुछ सोचती रही . फिर उनसे सामने सरोवर से एक कमल —पुष्प लाने को कहा.दंपत्ति पुष्प लेने चल दिये. पति पुष्प लेने के लिये सरोवर में गया तो दलदल में फँस गया और पत्नि से मदद मांगने लगा. पत्नि इधर—उधर देखने लगी कि कोई मदद मिल जाये. परंतु वहाँ कोई नहीं था. अचानक उसकी द्रष्टि एक लता पर गयी और वह लता लाकर उसका एक सिरा पति के तरफ दिया और पति से उसे पकडकर बाहर आने के लिये कहा. किंतु लता की वह रस्सी छोटी थी जो उस तक पहुँच नहीं रहा था. किंतु पत्नि आगे बढ़कर उस सिरा को पति तक पहुँचाना नहीं चाहती थी क्योकि उसे डर लग रहा था कि वह भी पति के तरह दलदल में फॅस न जाए. पति उत्रोतर दलदल में अंदर धँसता जा रहा था पर वह बिल्कुल भी हिम्मत बटोर नहीं पा रही थी. ऐसा देखकर वृद्ध संयासिनी आगे बढ़कर लता की सिरा पति तक पहुँचाया तो उस पत्नि की हिम्मत भी बंधी. जब पति लता के सहारे दलदल से बाहर निकला और पत्नि पर क्रोध से चिल्लाने लगा तब वृद्ध संयासिनी ने उन्हें शांत किया.अब वृद्ध संयासिनी के सामने पुष्प न ला पाने के कारण लज्जित युवा दंपत्ति खड़े थे.

संयासिनी ने पति को संबोधित कर कहा कि वह कुछ भी काम करने से पहले संयम से अच्छी तरह सबकुछ सोच समझकर भावी योजना बनाया करे. संयम क्रोधादि दुर्गुणों को हटाकर और सद्‌गुण का विकास कर पाया जा सकता है. इसलिए वह सद्‌गुणों के विकास का नित्य अभ्यास करे और क्रोध न करे. सभी से प्रेम करे.

पुनः पत्नि से कहा कि तुम्हारे पास प्रेम तो बहुत है किंतु त्याग नहीं. त्याग के बिना प्रेम निष्प्राण है. त्याग के भाव के बिना हिम्मत पैदा नहीं हो सकता. हिम्मत जीवन का सबसे बड़ा ऊर्जा सूत्र है. इसके बिना कोई भावए कोई विचार कार्यरूप में नहीं बदलता. इस तरह तुम्हारा प्रेम भी त्याग के बिना वाह्यरूप में प्रकट होने से रह जाता है.साथही त्याग सभी गुणों का मुल है और त्याग के गुण भी समस्त लोभादि दुर्गुणों पर नियंत्रण पाने पर आता है.

अपनी कमियों को स्वीकारते हुए उस युवा दंपत्ति ने अत्यंत लज्जित होकर एक दुसरे से माफी मांगी. फिर वृद्ध संयासिनी को अपने दुर्गुण त्यागने का वचन दे कर विदा मांगा.

प्रदीप कुमार साह

दुष्प्रभाव (लघुकथा)

प्रकाश नाम का एक मिहनती छात्र था. वह परिक्षा में प्रत्येक कक्षा में अव्वल आता था. वह मिहनती तो था ही, काफी सौम्य और आज्ञाकारी भी था. इसलिए उससे शिक्षकगण हमेशा प्रसन्न रहते थे. इससे कुछ छात्र उससे ईर्ष्या रखने लगे. वे तरह—तरह से उसे परिशान करते, बेवजह उसकी शिकायत करते. इससे वह दुःखी रहने लगा.

एक दिन उसके वर्ग शिक्षक जयप्रकाश को उसके उदासी का आभास हुआ तो उसने प्रकाश से कारण पुछा. प्रकाश उनसे अपना सारा दुःखड़ा सच—सच बता दिया. सब कुछ जानकर उन्हें दुःख हुआ. किंतु उन्होने प्रकाश से उसका संयम और आत्मबल अधिकाधिक सबल बनाने कहा. उन्होने उस दोहे का स्मरण कराया जिसमें निंदक को इतना करीब कि आंगन में कुटी बनवाकर रखने की सलाह दी गई थी.

ऐसा क्या संभव है? प्रकाश का जिज्ञासा हुआ. वर्ग शिक्षक ने उसे समय की प्रतीक्षा को कहा जब उसका मन—मस्तिष्क इतना परिपक्व होता कि वह प्रश्नोत्तर समझ सकता. समय बीतने लगा. एक दिन वह पढ़़—लिखकर बड़ा अफसर बन गया. उसके कर्तव्य परायणता और ईमानदारी से उसका प्रोन्नत्ति और नामवरी हुआ. अब उससे ईर्ष्या करनेवालों की संख्या भी अधिक हो गई. इससे वह दुःखी हुआ. उसे अपने प्रति अत्याधिक प्रेम रखनेवाले वर्ग शिक्षक जयप्रकाश का स्मरण हुआ. वह उनसे मिलने चला गया. जयप्रकाश बुढ़़े हो चुके थे. उसने जयप्रकाश के चरण छुए और अपना परिचय दिया. उन्हें पुर्व की बातें स्मरण करा अपनी स्मस्या उनके समक्ष रखी.

जयप्रकाश मुस्कुराकर बोले, संसार में आये प्रत्येक जीवमात्र द्वारा किये प्रत्येक कर्म का अपना प्रभाव (प्रतिफल) होता है और उसका दुष्प्रभाव (साइड इफेक्ट) भी. सुकमोर्ं का प्रभाव ज्यादा और दुष्प्रभाव कम होता है, इसके विपरित दुस्कमोर्ं का. यद्यपि दुःप्रभाव को शून्य नहीं किया जा सकताएकिंतु शून्य तक लाया जा सकता है. इसलिये मनुष्य सुकर्म करते हैं. शेष दुष्प्रभाव झेलने के लिये संयम रखते हैं. संयम रखने से आत्मबल बढ़ता है और मनुष्यमात्र दुष्प्रभाव से काम की चीजें भी प्राप्त कर सकता है, जैसे कीचड़ से कमल प्राप्त होता है.

प्रदीप कुमार साह

आकांक्षा

आजकल कामकाजी जीवन में घर और दफ्तर के व्यस्ततम काम—काजों के इतर ब मुश्किल किसी को वो पल नसीब होता है जब कोई कुछ समय फुर्सत से कहीं बैठ सके. आज मुझे वो पल नसीब हुए, जब मैं किसी काम से छुट्टी लेकर गाँव आया और भाभीजी भी किसी संबंधी के शादी समारोह में शरिक होने सपरिवार गई. तब मैं घर में अकेला रहा. आदमी फुर्सत में जब बैठा हो तब पुरानी खट्टी—मीठी यादें ताजा हो जाना स्वभाविक है. उस क्षण में उन बातों पर भी ध्यान चला आता है, जिस पर अपने व्यस्ततम जिंदगी में ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया. अन्नु मेरी प्यारी भतीजी है. उस मासूम ने एक दिन मुझसे तोतली बोली में पुछा था कि आकांक्षा और स्वप्न देखने में क्या अंतर है? तब उसका सही—सही जवाब मैं नहीं दे पाया और शहर चला आया था. फिर गृहस्थी में इस कदर फँसा कि एक लंबे अर्से से दुबारा मुलाकात न हो पाई.

आज मुझे महशुस होता है कि वो लोग निश्चय ही कितना खुशनसीब होते हैं जिन्हें फुर्सत के कुछ पल मिल पाते हैं और कुछ क्षण वह शांतचित्त रह सकते हैं. जब मनुष्य शांतचित्त होते हैं, वास्तव में वह आत्म—चिंतन की ओर अग्रसर होते हैं. अभी मुझे अन्नु के प्रश्न पर चिंतन करने का अवसर मिला है. मुझे पुरानी बातें भी याद आ रही हैं. जब मैं अपने भतीजी के उम्र का था, तब पढ़़ने—लिखने से बिल्कुल जी चुराता था. जब कोई पुछता कि मैं क्या बनना चाहता हुँ, तब झटपट जवाब देता कि मुझे मजिस्ट्रेट बनना. उन दिनों पिताजी मुझ पर गुस्सा भी बहुत होते थे. वे गुस्से में अक्सर कहते थे, इच्छा करना उचित है, क्योकि इच्छा जगाने से कार्य करने के प्रतिभाव जागृत होता है. इच्छा—पुर्ति हेतु कड़ी महेनत करनी होती है. किंतु बिना कर्म किये बड़ी—बड़ी बातें सोचना केवल स्वप्न देखना है.

किंतु मुझ में अपेक्षित सुधार नहीं आ पाया. बडी मुश्किल विद्यालय जाने लगा तो सही से पाठ्य का गृह कार्य (होम वर्क) नहीं करता. किंतु मुझ में कुछ बड़ा बनने का लालसा बना रहा, जिसके फल स्वरुप मुझे किसी निजी कंपनी में नौकरी मिली. किंतु मनमाफिक पद नहीं थाएन तनख्वाह. इससे मैं संतुष्ट नहीं था. अच्छे पद और अच्छी तनख्वाह के लिये कोशिश करने लगा. एक दिन आकांक्षा के अनुरुप कुछ अच्छी नौकरी मिली. सफलता मिलने से मेरी महत्वाकांक्षा बढ़़ गई. मिहनत करना जारी रखा. फिर एक—एक कर मुझे कई प्रोन्नत्ति मिले. मुझे खुशी हुई किंतु संतुष्टि अब भी न था. मुझे अधिकाधिक ख्याति और धन की इच्छा होने लगी.

एक बार विधान सभा चुनाव का समय आया. एक राजनितज्ञ से अपनी तुलना कर उनके ख्याति एवं धन के बारे में सोचा. तब मुझे भी एक राजनेता बनने का लालसा जगा. चुनाव का समय था सो नौकरी और पद त्याग कर पूरे जी—जान से पार्टी टीकट लेने के जुगत में लग गया. पार्टी का टीकट पाने में सफल हुआ. फिर चुनाव हुआ और नतीजा आया. चुनाव में मेरी हार हुई. मेरा सारा मिहनत और धन बर्बाद गया. चिंताकुल मेरी कई दिनों तक भुख—प्यास भी जाती रही. मैं बीमाड़ पड़ गया. अंततः मुझे अस्पताल में इलाज के लिये भर्ती होना पड़ा. मेरी अति महत्वाकांक्षा ने मुझे ले डुबा था.

अस्पताल से छुट्टी मिली तो घर आकर आर्थीक तंगी से घिर गया. राजनेता बनने के चक्कर में नौकरी और पद पहले ही त्याग चुका था. अब दुबारा नौकरी ढ़ूँढ़़ना प्रारंभ किया. काफी मशक्कत के बाद नौकरी मिली और अपनी आजीविका चला रहा हुँ.अब उस मासूम के सवालों का क्या जवाब दूंघ् मेरी समझ से यही न किए किसी इच्छा—पुर्ति हेतु कर्म करते हुए उसे (इच्छा) बनाए रखना आकांक्षा है अर्थात्‌ कर्म का प्रश्रय प्राप्त इच्छा आकांक्षा है और यह भी कि कर्म विहिन इच्छा दिवा स्वप्न.उसे यह समझना होगा कि जो हमें चाहिए उसे पाने हेतु मन में उठने वाला भाव इच्छा है. भाव जिवित प्राणीमात्र के जिवन का परिचायक होता है.इस तरह इच्छा एक सहज मानसिक भाव है. अब मैं उसे यह बताऊँगा कि एक कार्य में सफलता मिलने के पश्चात्‌ कुछ और अच्छा पाने या करने की इच्छा महत्वाकांक्षा है. आकांक्षा से मनुष्य का कर्म के प्रति जागृति व्यक्त होता है और महत्वाकांक्षा लक्ष्य एवं सफलता का मार्ग है. किंतु लोभ एवं अज्ञानतावश लोग इस मार्ग से भटक जाते हैं.

मैं उसे यह भी बताना चाहुँगा कि अति का सभी जगह त्याग करना चाहिए. लोभादिक से परिपुर्ण अति—महत्वाकांक्षा मदांध व्यक्ति को कष्ट और पतन की ओर ले जाता है.

प्रदीप कुमार साह

लक्ष्य (कहानी)

कुछ दिन पहले मैं अपने चचेरे भाई से मिलने उनके घर गया था. भाभीजी यथासाध्य आवभगत कर मेरा कुशल—क्षेम पुछा फिर गृहकार्य निपटाने में व्यस्त हो गई. उनका छोटे—छोटे बच्चों से भरा—पुरा परिवार था. पूरा परिवार सभी तरह से सुखी और खुश था, सिवाय इस बात के कि उनके बच्चों में अच्छी बातें सीखने की ललक थोड़ा मंदा था. इस बात के लिए भाभीजी मेरे सामने भी बच्चों को डॉट—फटकार लगाई.

यह सब देखकर मुझे भी थोड़ा चिंता हुआ, किंतु सबकुछ समझे बिना किसी से कुछ कहना उचित न समझा. शाम में भाई साहब घर आए. उनसे बातचीत होने लगी. बातचीत के दरम्यान वे बीच—बीच में बच्चों की लापरवाही पर उस पर चिल्लाए भी. किंतु बच्चों पर ज्यादा असर नहीं हुआ. फिर हमलोग खाना खाकर सो गये.

मैं वँहा पूरे एक दिन ठहरा. ऊपरोक्त घटना मानो उस परिवार के दिनचर्या का एक हिस्सा था. मैंने बच्चों को लाड़—प्यार किया और उसे समझने की कोशिश की. बच्चे जल्दी से घुलने—मिलनेवालों में से नहीं थे. एक दब्बु था तो दूसरा मुँहफट. किंतु दोनों में एक बात में समानताथी. वह कि उनके मन में क्रोध, घृणा, प्रतिशोध और द्वेष की भावना प्रबल थी.

निःसंदेह मन में ऐसी भावना रहने पर संयम और आत्मनिरक्षण कहॉ रह सकता है, इसके बिना जीवन में अपेक्षित सुधार भी कैसे आ सकता है, क्रोधादि तो विचार और इच्छा शक्तिओं को नष्ट कर ही देता है, फिर इस सबके बिना लक्ष्य—निर्धारण कैसा हो सकता है? मैं चिंतन करने लगा.

कहते हैं कि लाड़—प्यार से बच्चों का चरित्र बिगड़ जाता है. पर भारतीय इतिहास तो कुछ और भी कहता है. बालक शिवाजी को माता जिजाबाई द्वारा बार—बार समझाया गया और इस योग्य बनाया गया कि वे छत्रपति का अलंकार धारण—योग्य बन गये. बालक चंद्रगुप्त को मुरा का बेटा—मौर्य, नाम देकर महान गुरु चाणक्यने महान सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य का आधारशिला प्रदान किये. वे सब अलंकार के शब्द लक्ष्य का प्रतिनिधित्व किया. इस तरह गुरु द्वारा लक्ष्य का निर्धारण किया गया. उस अलंकार के अनुरुप उनके भावनाओं का विकास हुआ. नेपोलियन बोनापार्ट अपनी ऊर्जा शक्ति स्वयं विकसित की. उन बालकों के अभिभावक, गुरु अथवा स्वयं अपने आकांक्षा के अनुरुप ही लक्ष्य प्रदान किये, जैसा सभी अभिभावक करते हैं. संभवतः उन्होंने भी अत्यधिक लाड़—प्यार न किया हो, किंतु उन्होंने सम्यक उपाय जरुर किये. संभवतः बच्चों की निंदा वे करते हों, किंतु निंदा करने की उनकी नियतिथी इतिहास में इस बात का कोई जिक्र नहीं है.

अंग्रेजी का एक पुरानी कहावत है, जिसका आशय है कि छड़ी का टूटना और बच्चों का सुधरना. यानि बच्चों की पिटाई इस कदर करने की सलाह दी गई है कि वह इतना भयभीत हो जाये कि हर कही बात मानने लगे. जहॉ भय हो वहॉ घृणा और द्वेष न हो अथवा प्रेम हो, यह किस तरह संभव है? वह घृणा और द्वेष क्रमशः क्रोध और प्रतिशोध का बीज नहीं है क्या! फिर एक कार्य जो उत्साहपुर्वक किया जाता है और वही भयभीत होकर अथवा अति—उत्साह से किया जाए तो प्रतिफल एक—सा हो सकता है? कदाचित ऐसा संभव नहीं है.

यह परम सत्य है कि मनुष्य लक्ष्य—विहिन रहकर जीवनपथ में प्रगति की ओर अग्रसर नहीं हो सकता. यह सच है कि बालपन में लक्ष्य निर्धारित हो जाने से आशानुकुल प्रगति हो सकता है. यह भी कि अबोध बच्चे हेतु लक्ष्य का निर्धारण उसके अभिभावक को करना ही होता है, जो उनका दायित्व है. किंतु यह भी एक सत्य है कि सम्यक उपाय रहित लक्ष्य निर्धारण चिर समय तक ठहर नहीं सकता. उपाय ऐसे किये जाए कि बच्चों में इच्छा और विचार शक्तियॉ बनी रहे. तभी वह लक्ष्य प्राप्य होगा. अर्थात बच्चों के प्रति अभिभावक का स्पष्ट लक्ष्य हो कि वह सम्यक उपाय से बच्चों को उनके लक्ष्य से अवगत कराएं एवं प्रेरित करें.

मैंने भाभीजी को अपने विचार से अवगत कराया. तर्क—वितर्क के पश्चात्‌ उन्होंने मेरे विचार से सहमति जताई और उक्त विचार को अपनाने का आश्वासन दिया. फिर मैं उनसे अनुमति लेकर अपने घर चला आया.

प्रदीप कुमार साह

पगला (लघुकथा)

जेल प्रशासन के कायदेनुसार बंदी को मुलाकातियों से मिलवाने का समय हो रहा था. मुलाकाती कतार में खड़े बेसब्री से अपेक्षित बंदी से मिलवाने की प्रतिक्षा कर रहे थे. कतार लंबी थी. भोला उसी कतार में खड़ा रवि का इंतजार कर रहा था. रवि उसके बचपन का दोस्त था. किंतु भोला और रवि में लंबे अरसे से संबंध नहीं रहे थे. वह रवि से मिलने अंततः तब तैयार हुआ, जब रवि की पत्नी कई बार आकर उसके रवि से एकबार मिल आने की आरजू—मिंनत की. भोला की वह हैसियत न थी कि वह रवि के कोई काम आ पाता. किंतु पता नहीं अब रवि उससे मिलने इतना ललायित क्यों था. उसे मिलने आने के संदेशे पे संदेशा दिया.

भोला जब पाँचवीं कक्षा में पढ़़ता था तब से रवि को जानता है. रवि तब बुरा नहीं था. यद्यपि कभी बुरे संगत में पड़कर कुछ गलतियाँ करता तो समझाने पर अपेक्षित सुधार कर लेता था. पर कालांतर में बुरे संगत से उसमें लोभ की भावना प्रबल हो गयी. उसके किसी गलती पर एकबार भोला उसे समझाने की कोशिश की तो वह कहने लगा कि कोड़े आदर्श की थोथी बातों में उलझने से अच्छे मौके का फायदा लेना ही उचित है. कहते हैं कि बहती गंगा में हाथ धो लेना ही बुद्धिमानी है. फिर चरित्र बिगड़ने वाली कोई चीज थोड़े न है. यदि वैसा है भी तो उसका निर्माण स्वयं कर सकते हो. लेकिन धन सबसे बड़ी चीज है, उससे सब कुछ पाना संभव है. यदि वह हाथ आने से रह गया तो जीवन भर सिवाय पछतावे के कुछ नहीं मिलता.

उसके कुतर्क के समर्थन में उसके साथी सामने आए. उन्होंने भोला से कहा था कि वह वास्तविकता से दूर आस्तिकता की दुनियाँ और कोड़ी कल्पनाओं से भरे आदर्श की बातों में जीनेवाला पगला (पागल) है. इस तरह रवि उससे दूर होता गया और उससे मिलना—जुलना भी धीरे—धीरे कम कर दिया. बुरे संगति में पड़कर रवि अपराध की दुनियाँ में कदम रख दिया था.

तभी रवि से मिलने का पुकार हुआ और भोला बीती—बातों की दुनियाँ से बाहर आया. वह आगे बढ़़कर रवि से मिलने गया. सामने रवि सलाखों के पीछे खड़ा था. भोला को देखकर रवि साहसा रो पड़ा. उसने रोते हुए पुर्वोक्त बातों के लिये भोला से मांफी मांगी और बताया कि उसे लुट और हत्या के जुर्म में उम्र कैद की सजा हुई है. सारे सबुत के सामने वकील के उसके पक्ष में दिये दलीलें काम न आया. बुरे वक्त में सारे सहयोगी उसके पहचान से इंकार कर गए. पत्नी का भगवान से मिंनत रखना भी प्रतिफलित न हुआ. अब उसका एकमात्र आशा भोला से है.

भोलाने प्रश्न किया कि वह वास्तविकता से अब तक दूर रहा है, फिर वह आस्तिक और ईश्वर पर विश्वास करनेवाला है. वह संसारिक जीवन में आर्थिक और सामाजिक स्तर पर भी बेहद कमजोर है. वह रवि की मदद किस तरह कर सकता है.

इसपर रवि प्रतिप्रश्न किया कि उसे सजा से बचने हेतु क्या करना चाहिये? भोला जवाव दिया कि वह आस्तिक है. ईश्वर संसार में कर्म की प्रधानता दिये हैं, और कर्म के अनुरुप प्रतिफल अकाट्य होता है. इसलिये शास्त्र विवेक पुर्वक कर्म करने की सलाह देता है. फिर महापाप से निविर्ति का एकमात्र उपाय अपनी गलती मानते हुए पश्चाताप हेतु निर्धारित दंड प्राप्त करना और दंड को स्वीकार करना बताया गया है. किंतु वह तो व्यवहारिक व्यक्ति है. अपने बचाव का यथासंभव सारी कोशिश कर लिये हों तब एक भोगवादी व्यक्ति की नाई अपने कर्म का प्रतिफल समझकर सजा को स्वीकार करे. अथवा उसके विचारानुसार सजा की उस अवधि को पश्चाताप स्वरुप महापाप से मुक्ति हेतु सुअवसर समझकर सहर्ष स्वीकार करे.

तुमसे सलाह लेना ही मुर्खता है. पगला कहीं के.... कहते हुए रवि पुनः रोने लगा. मिलने का समय समाप्त हो गया था. प्रहरी उसे अंदर ले गया. भोला लौट गया, उसे अपने मित्र की सहायता न कर पाने का थोड़ा गम था और थोड़ी खुशी इस बात की थी कि उसके मित्र को सुधरने और पश्चाताप करने का अवसर मिला.

प्रदीप कुमार साह

स्वाधीनता की कीमत (लघुकथा)

तोता अपने मित्र कौआ से मिलने आया. तोते का मित्र द्वारा यथोचित आदर—सत्कार हुआ. दोनों एक—दूसरे का कुशल—क्षेम पूछने लगा. इस बीच तोते ने महशुश किया कि मित्र कौआ के प्राकृतिक स्वभाव में कुछ बदलाव आ गये हैं. पंक्षियों में कौआ अति चंचल, वाचाल और बेहद सतर्क माना जाता है. किंतु उसका मित्र बुझा—बुझा सा था. तोते ने कौआ के उदासी का कारण पुछा. कौआ बताया, इस पेड़ पर एक गिलहरी रहती थी. कल वह मारी गयी.

गिलहरी किस तरह मारी गई? तोते का जिज्ञासा बढ़़ गया.

कौआ ने बताया, भोजन के तलाश में गिलहरी जब पेड़ से नीचे आई तो पहले से घात लगाकर बैठी बिल्ली उस पर झपट पड़ी और वह शिकार बन गया.

धत्त तेरी की! इसमें विशेष क्या है? वैसे तो कितने ही जीव दूसरे का भोजन बनते हैं. तोता झल्लाया.

कौआ बोला, मैं उसके मारे जाने मात्र से चिंतित नहीं हुँ. मारे जाने से पहले वह कितने समय बिल्कुल प्रतंत्र बिल्ली के कैद में पड़ा रहा. उसके मरने तक बिल्ली उसके साथ कितना क्रुर खेल खेलती रही, वह सब सोचकर दुरूखी हूँ.

वह तो बिल्ली का स्वभाव है. तोता बोला.

इस पर कौआ कहने लगा, बात इतनी ही नहीं है. गिलहरी भी हमारे तरह स्वछंद विचरन करनेवाली, चंचल और स्वाधीन रहने का आदी प्राणी है. बिल्ली द्वारा मारे जाने से पहले वह प्रतंत्र हो गई थी. कितने कष्ट में था वह. उस वक्त शायद उसे अपनी गलती का अहसास हो रहा होगा. स्वाधीनता क्या चीज है, उसे समझ में आ रहा होगा.

यह तुम क्या कह रहे हो, वह तो महज संयोग था. तोता ना समझी से बोला.

मैं ऐसा नहीं मानता. गिलहरी की वह दशा उसके असावधानी से हुई. अपनी स्वाधीनता हेतु सावधानी रखना क्या जरुरी नहीं है? कौआने पुछा तो तोते से कोई जवाब न बना. आगे कौआ कहने लगा, स्वाधीनता तब तक ही नसीब होता है, जब तक उसे धारण—योग्य हो. वह योग्ता तब आती है, जब जीव निरंतर प्रयत्नशील, सतर्क और नियम पालन हेतु सदैव तत्पर रहते हैं.

कैसे नियम? तोता अचंभित हुआ. कौआ तेज आवाज में कहने लगा, हाँए नियम! किसी देश या जीव के स्वयं हेतु कुछ नियम होते हैं. वह नियम उसके पुर्वज अपने कई पीढ़़ी के अनुभव से तय करते हैं. वे नियम उसके स्वतंत्रता, सुरक्षा, चहुँमुखी विकास और जीवन जीने से संबंधित होते हैं. इसलिए समस्त जीव को सदैव सतर्क, प्रयत्नशील और नियम पालन हेतु तत्पर रहना चाहिये. वही स्वाधीनता की कीमत है.

प्रदीप कुमार साह